शहीद मेजर पूरणसिंघ

हाथ मे बंदूक खून में दीवानगी देश के जवानो की यही हे बानगी ---सरल

गंगा से लहू रेत से दूध देह पर्वत की सागर से लेकर दहाड़ बनता हे हिन्दुस्तानी
दुश्मन, श्राग, व्क्त तक को ललकार सिपाही माटी की मर्यादा पर दे देता हे कुर्बानी  -----हरीश भादानी

वाचन पत्र

मेजर पूरणसिंघ राजस्थान में लोंग रेंज सीमा गश्त की कमान कर रहे थे. 31 ओक्तूबर, 1965 को प्राट:काल उनका ख़ाइयों में सुस्थित शत्रु सैनिकों से सामना हो गया ओर उनकी कुछ सैन्य टुकड़ियाँ शत्रु के घेरे में आ गई. मेजरसिंघ ने अपनी शेष सैन्य टुकड़ियों को ऐसा संगठित किया कि शत्रु घेरे में आ गया. जब शत्रु ने भारी गोला-बारी आरम्भ कर दी तो मेजरसिंघ ने अपने सैनिकों का आगमं कर इतनी प्रभावशाली गोला-बारी की कि शत्रु अपनी स्थिति छोड़कर पीछे हट गया. वह एक दूसरे मोर्चे पर लगातार तीन आक्रमनों को विफल करने में सहायक हुए. उसके बाद शत्रु के घेरेमें आजाने से वह वीरगति को प्राप्त हुए. संपूर्णा संख्या में मेजर पूरणसिंघ ने सेना की उच्च परम्म्परओ के अनुरूप आदरणीय साहस तथा अविचलित दृढ़निस्चय का परिचय दिया.


(पी. वी. आर. राव)
सचिव, भारत सरकार

मैं उनके गीत लिखूंगा.

करे कुर्बान अपनी जिंदगी जो देश की खातिर
जो जीते ओर मरते हों बस इस देश की खातिर
कदम उठे अगर उनके, जमाना साथ देता हो
यह धरती ही नहीं, अम्बर भी उबका साथ देता हो
मैं उनके गीत लिखूंगा…

सच्चाई के लिए जिनके कदम, नही लड़खड़ाते हो
मदद करने किसी मज़लूम की, नही डगमगाते हो
उठे हथियार अगर उनके, धरम की आन रहती हो
मिटा दे दुश्मनों को, अगर वतन की आन रहती हो
मैं उनके गीत लिखूंगा...

ओम केवलिया
एम.ए.बि.एड.

मोर्चे पर जाते सिपाही का बयान...

मोर्चे के बुलावे पर घर को पीठ देने से पहले, जब भी सामने होता हू अपनी जवान बीवी के, वह मेरी बाँयी जेब में चंद ताज़ा गुलाब भर दिया करती है ओर में मुस्कुरा दिया करता हूँ. अपनी ज़मीन को यूँ महकता हुआ देखकर.....

दगति ही जाती है बंदूक दन..दन..दन हवा में महक महक से परत दर परत खुलते जाते मेरी ज़मीन के ख़याल ओर सपने आगे...आगे...आगे लिये चलते हैं मुझे.

फेंकी गई पराई आग, फटी भी है तो मेरे पॉवो के आगे. उस रोशनी के धुआंसे को बुझाने खुलने को उछलती मेरी मुट्ठी दागती हैं मेरी बंदूक.

मेरी बाँयी जेब से बाहर आकर सातेली हो जाती हे ज़मीन के ताज़ा गुलाबों की महेक ओर बिठा देती हे मुझे किसी टेंक पर मेरे देश. सुन मेरे देश...!

दन..दन..दन से आगे -----

मेरी ज़मीन ने दिए मुझे लाख-लाख परिणामाओं के बासंती सपने मेने सांस सांस में लिया एक एक को;

सुन मेरे देश...! दन..दन..की गूँज के साथ दाहिना हाथ कुण्डी न ख्टाए परिणामाओं ओर प्रेरणाओ को आवाज़ न लगाए,

तो...तो...तुम उनकी आँख मत भीगने देना, सपना होकर हिलक जाना आखों में, अपनी हथेलियो में उठाए रखना अपने देश की रेत कि ज़मीन मोर्चे के बुलावे पर.

घर को पीठ देने से पहले तुम्हारी बाँयी जेब में ताज़ा गुलाब रख दिया करे.

 -----हरीश भादानी