सिपाही की औरत का एक नाम
श्रीमती सोहन कुंवर !

"सोहन कुवर, आज मोर्चे माथे जाणो है." "लो कुवर सांब, दई पिओ, मोर्चे जांवती बेला हू आपने दई पॅवउ कुंवरर्जी. शैतानसिंघजी दुम्बे में हमारा भाई हुआ करता ... हिन्दुस्तान की औरत .अर्थार्त सिपाही की पत्नी यानि की राजपूतनी मोर्चे पर जाते अपने पति को गम नही दही पिलाती है ओर वीरता ओर बलिदान की कथा कवच स्वय पहनकर फ़ौजी पोशाक मे लदकड़ पति को विदा करती है, दही राजपूती ही नही भारती की गरिमा की बलिदान को उज्वल्ता का प्रतीक है. श्रीमती सोहन कुवार के पति मेजर पूरणसिंघ को इस भावना के साथ अंतिम बार के लिए विदाई दी ३० न्वेमबर १९६५...... ' जयसिंघ ! जीत की हुइनि, म्हारो मन उचाट है, मन्हे लागे, आज आपा ऐकला पढ़गया.......२६ न्वेमबर १९६५ को परिवार के पास मोर्चे पर लड़ रहे मेजर पूरणसिंघ के १ डिसेंबर को बीकानेर पहोच्ने का समाचार आता है...मगर ३० न्वेमबर को पत्नी के मन को आशंका........डर....भय..... १ डिसेंबर १९६५ को सॅंच होकर घर पर खबर होकर पहोच गई. शहीद मेजर के बूढ़े पिता ठाकुर कन्सिन्घ भूरियो में कसे राजपूती गौरव पर चढ़ गए बेटे की याद से भारी हुए बेथे हैं ओर पाँच बेँटो ओर चार बेटियो की मा श्रीमती सोहन कुंवर शरीर की दुर्बलता पर तनी बेथि पति के शब्दो की परते उधार रही है....."सोहन कुँवर् ! ये शैतानसिंघजी की याद कराई है, म्हारी भी सुनलो, गौरव उँचो ही राखू ला......वीर चक्र ओर लाल किलो......थे ज़रूर देखलो....." वही सोहन कुँवर् शोक सन्देश सुनाते काँपते रहते अधिकारिओ से संयुक्त होकर अपने पति के अंतिम दर्शन कराने का अनुरोध करती है.

 

राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से मरणोपरान्त वीर चक्र प्राप्त करती बलिदान के संस्कारों नें पली पोशी श्रीमती सोहन कुंवर पति की समृति में न खोकर एक घंटे से खड़े होकर शहीद सैनिकों की विधवाओं को सम्मान प्रदान करते वृढ़ राष्ट्रपति की भावना के प्रति श्रद्धा से अभिभूत है. वह पुरूस्कार की म्जूषा न देखकर अपने देश के राष्ट्रपति के चेहरे की भावनाएँ समजने में खोई हुई है. नगर के लोग प्रतिमा लगाने के संकल्प की सूचना पहुचाते हें तो सोहन कुंवर को पूना में हुई पति से बात की याद आती है.....'सोहनं कुंवर ! थारो फोटू बहुत आछो आयो है, मूरत बनान सरखो है.....' कुवर साब, म्हे तों कई करियो है जीको म्हारी मूरत बन पड़े म्हारी भायसा हैं, थारी मूरत ज़रूर बनली ओर घना लोग देखेला.....ओर औरत की भावना नागरिक भावना के रूप में साकार होती हुई श्रीमती सोहन कुंवर देख रही हैं. उसके अपने लिए अपने परिवार के लिए किसी से न परिजनों से ओर न सरकार से आकानशा की; वह अपने पति की समृति के जीविता प्रतीक ६ बच्चों ओर बेल की तरेह बढ़ रहे, परिवार को जवान बेटे जयसिंघ के श्रम से स्वारने में लगी है. उसे अपने पति को मिली मृत्यु पर आत्मिक गौरव हैं.

 

तीसरा बेटा सिपाही ही बने
माँ की ज़िद बेटे से

 

" मैं सिपाही नही बन सका उसका मुझे़े ही नहीं मेरी मा को भी गहरा दुख है ओर दूसरा भाई भी शिक्षा पूरी न कर पाने के कारण सिपाही नहीं बन सका ओर यह मा की ही प्रेरणा ओर इच्छा हैं की तीसरा भाई अजमेर में सैनिक शिक्षा पूरी कर रहा हैं, वह सिपाही बनेगा." जयसिंघ मेजर पूरणसिंघ के ६ बेटे-बेटियों में सबसे बड़ा, १९६५ में १७ वर्ष का था ओर दादा ठाकुर कानसिंघ अपनी उमर के आखरी चरण में बेटे के बलिदान को थोड़े समय ठाकुर ने अपनी यात्रा पूरी करली. १७ वर्ष की कच्ची उमर में भरे-पूरे परिवार का मुख्या बन गया. ठाकुर जयसिंघ २८ वर्ष की उमर में अपने परिवार की फ़ौजी परमपरा को पूर्ववत बनाए रखने में सजग ही नही सशम चिंतित है. "मेरे दादा भी फौज में रहे, पापा के सैनिक जीवन की कथा आपके सामने हैं. बड़ा बेटा होने के नाते मेने भी फ़ौजी बनना चाहा मगर मेरे प्रयत्न सफल नही हुएँ. मा अब भी याद दिलाती रहती हैं. मा का सपना भी जल्दी ही साकार होगा जब मेरा तीसरा भाई फ़ौजी लिबांस में मा के चरण स्पर्षट करेगा....." आमने सामने मा ओर बेटा बेथे है किसी भी चेहरे पर ना शिकायत हे न हताशा है ओर ना ही किसी प्रकार की थकान ओर ना ही किसी से अपेक्षा....आकानशा... प्रत्येक पाँच-सात शब्दो के बाद "फौज" दोनों बोल पड़ते हैं लगता है फौज इनके जीवन का ज़रूरी संस्कार बनी हुए हैं जिससे परहेज का विचार न औरत को ओर न ही पुरुष को अच्छा लग पाता हैं. "म्हारा तो दादा-परदादा से फ़ौजी रेयोडा हैं. म्हे आ आण कांकर छोड़ सका....." परम्परा का मोह कितना म्हरे से कस कर बोलता है, यह फौज की किसी बात का प्रश्न पूछ देखिये, उत्तर शुरू होवे से पूर्व चेहरे का भाव ही गर्वीला उत्तर बन जाता हैं. जयसिंघ का मनोबल उँचा है, बह अपने परिवार की उन्नति का ठोस ज़मीन पर खड़ा अपने में लगा हुआ हैं, उसे पूरा एहसाह है अपनी फ़ौजी परम्परा का, बलिदान का, भारतीय सेना के उच्च आदर्शो का ओर नीरा अपनापन है उसके मन में अपने पिता को दिए जा रहे नागरिक सम्मान के संयोजको के प्रति.

 

साशात्कार
हरीश भादानी